Ad

झुलसा रोग

इन रोगों से बचाऐं किसान अपनी गेंहू की फसल

इन रोगों से बचाऐं किसान अपनी गेंहू की फसल

मौसमिक परिवर्तन के चलते गेहूं की खड़ी फसल में लगने वाले कीट एवं बीमारियां काफी अधिक परेशान कर सकती हैं। किसानों को समुचित समय पर सही कदम उठाकर इससे निपटें नहीं तो पूरी फसल बेकार हो सकती है।

वर्तमान में गेहूं की फसल खेतों में लगी हुई है। मौसम में निरंतर परिवर्तन देखने को मिल रहा है। कभी बारिश तो कभी शीतलहर का कहर जारी है, इसलिए मौसम में बदलाव की वजह से गेहूं की खड़ी फसल में लगने वाले कीट और बीमारियां काफी समस्या खड़ी कर सकती हैं। किसान भाई वक्त पर सही कदम उठाकर इससे निपटें वर्ना पूरी फसल बेकार हो सकती है। गेंहू में एक तरह की बामारी नहीं बल्कि विभिन्न तरह की बामारियां लगती हैं। किसानों को सुझाव दिया जाता है, कि अपनी फसल की नियमित तौर पर देखरेख व निगरानी करें।

माहू या लाही

माहू या लाही कीट काले, हरे, भूरे रंग के पंखयुक्त एवं पंखविहीन होते हैं। इसके शिशु एवं वयस्क पत्तियों, फूलों तथा बालियों से रस चूसते हैं। इसकी वजह से फसल को काफी ज्यादा नुकसान होता है और फसल बर्बाद हो जाती है। बतादें, कि इस कीट के प्रकोप से फसल को बचाने के लिए वैज्ञानिकों द्वारा दी गई सलाहें।

ये भी पढ़ें: जानिए, पीली सरसों (Mustard farming) की खेती कैसे करें?

फसल की समय पर बुआई करें।

  • लेडी बर्ड विटिल की संख्या पर्याप्त होने पर कीटनाशी का व्यवहार नहीं करें।
  • खेत में पीला फंदा या पीले रंग के टिन के चदरे पर चिपचिपा पदार्थ लगाकर लकड़ी के सहारे खेत में खड़ा कर दें। उड़ते लाही इसमें चिपक जाएंगे।
  • थायोमेथॉक्साम 25 प्रतिशत डब्ल्यूजी का 50 ग्राम प्रति हेक्टेयर या क्विनलफोस 25 प्रतिशत ईसी का 2 मिली प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करें।

हरदा रोग

वैज्ञानिकों के मुताबिक, इस मौसम में वर्षा के बाद वायुमंडल का तापमान गिरने से इस रोग के आक्रमण एवं प्रसार बढ़ने की आशंका ज्यादा हो जाती है। गेहूं के पौधे में भूरे रंग एवं पीले रंग के धब्बे पत्तियों और तनों पर पाए जाते हैं। इस रोग के लिए अनुकूल वातावरण बनते ही सुरक्षात्मक उपाय करना चाहिए।

बुआई के समय रोग रोधी किस्मों का चयन करें।

बुआई के पहले कार्बेन्डाजिम 50 प्रतिशत घुलनशील चूर्ण का 2 ग्राम या जैविक फफूंदनाशी 5 ग्राम से प्रति किलो ग्राम बीज का बीजोपचार अवश्य करें।

ये भी पढ़ें: सरसों की फसल के रोग और उनकी रोकथाम के उपाय

खड़ी फसल में फफूंद के उपयुक्त वातावरण बनते ही मैंकोजेब 75 प्रतिशत घुलनशील चूर्ण का 2 किलो ग्राम, प्रोपिकोनाजोल 25 प्रतिशत ईसी का 500 मिली प्रति हेक्टेयर या टेबुकोनाजोल ईसी का 1 मिली प्रति लीटर पानी की दर से छिड़काव करें।

अल्टरनेरिया ब्लाईट

अल्टरनेरिया ब्लाईट रोग के लगने पर पत्तियों पर धब्बे बनते हैं, जो बाद में पीला पड़कर किनारों को झुलसा देते हैं। इस रोग के नियंत्रण के लिए मैकोजेब 75 प्रतिशत घुलनशील चूर्ण का 2 किलो ग्राम या जिनेव 75 प्रतिशत घुलनशील चूर्ण का 2 किलो ग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें।

कलिका रोग

कलिका रोग में बालियों में दाने के स्थान पर फफूंद का काला धूल भर जाता है। फफूंद के बीजाणु हवा में झड़ने से स्वस्थ बाली भी आक्रांत हो जाती है। यह अन्तः बीज जनित रोग है। इस रोग से बचाव के लिए किसान भाई इन बातों का ध्यान रखें।

ये भी पढ़ें: गेहूं का उत्पादन करने वाले किसान भाई इन रोगों के बारे में ज़रूर रहें जागरूक

रोग मुक्त बीज की बुआई करे।

  • कार्बेन्डाजिंग 50 घुलनशील चूर्ण का 2 ग्राम प्रति किलोग्राग की दर से बीजोपचार कर बोआई करें। 
  • दाने सहित आक्रान्त बाली को सावधानीपूर्वक प्लास्टिक के थैले से ढक कर काटने के बाद नष्ट कर दें। 
  • रोग ग्रस्त खेत की उपज को बीज के रूप में उपयोग न करें। 

बिहार सरकार ने किसानों की सुविधा के लिए 24 घंटे उपलब्ध रहने वाला कॉल सेंटर स्थापित कर रखा है। यहां टॉल फ्री नंबर 15545 या 18003456268 से संपर्क कर किसान अपनी समस्याओं का समाधान प्राप्त कर सकते हैं।

आलू की फसल को झुलसा रोग से बचाने का रामबाण उपाय

आलू की फसल को झुलसा रोग से बचाने का रामबाण उपाय

भारत में बदले मौसम के तेवर रबी फसलों से प्रत्यक्ष तौर पर जुड़े होते हैं। आलू की फसल झुलसा रोग के मामले में काफी संवेदनशील है। बतादें, कि कोहरा, बादल और बूंदाबांदी मौसम के बदले मिजाज में आलू की फसल झुलसा रोग के प्रति संवेदनशील होती है। आलू की खेती में लगने वाली ज्यादा लागत एवं रोग से संभावित भारी नुकसान के मद्देनजर कृषक रोकथाम के उपाय करें। आपकी जानकारी के लिए बतादें, कि बारिश, बादल और तापमान में आई अप्रत्याशित गिरावट एवं कोहरे के कारण महज आलू की ही नहीं बल्कि अन्य फसलों जैसे कि टमाटर, लहसुन और प्याज की फसल को भी नुकसान संभव है। बढ़वार रुकने के साथ-साथ रोगों के प्रति संवेदनशीलता भी बढ़ जाती है। वर्तमान में आलू की फसल पछेती झुलसा (लेट ब्लाइट) के प्रति संवेदनशील है। इसका प्रकोप ऊपर की पत्तियों से चालू होता है। प्रारंभिक समय में किनारे की पत्तियां काली होती हैं। तीव्रता से इसका संक्रमण संपूर्ण पत्तियों और तने से होकर कंद तक पहुंच जाता है। ये अगैती झुलसा से ज्यादा खतरनाक है। समय रहते इसकी रोकथाम ना होने पर 2-3 दिन में पूरी फसल चौपट हो सकती है।

झुलसा रोग की इस तरह रोकथाम करें 

किसान मैंकोजेब के साथ कार्बेडाजिम का छिड़काव करें। प्रति लीटर पानी में दवा का अनुपात 2.5 से 3 ग्राम तक रखें। पहले रक्षात्मक छिड़काव के पश्चात आवश्यकता हो तो दो सप्ताह के पश्चात दूसरा भी छिड़काव करें।

ये भी पढ़ें:
आलू की खेती से संबंधित विस्तृत जानकारी

माहू का नियंत्रण कैसे करें 

आज के मौसम में सब्जियों के साथ-साथ सरसों में भी माहू और इससे होने वाले विषाणु जनित रोगों के संक्रमण की संभावना होती है। प्रकोप होने पर पत्तियां मुड़कर मोटी और कड़ी हो जाती हैं। पौध का विकास और बढ़वार रुक जाता है एवं पैदावार प्रभावित हो जाती है। इसके नियंत्रण के लिए मेटासिस्टाक्स 1.5 मिली लीटर प्रति लीटर पानी में मिश्रित कर छिड़काव करें। पाले से संरक्षण करने के लिए खेत में नमी बनाए रखें। आप मैंकोजेब का भी छिड़काव कर सकते हैं।

सब्जियों की अन्य फसलों पर भी मौसम का असर होगा 

अगर मौसम खराब रहा तो ऐसे में प्याज, लहसुन का विकास रुक जाता है। अधिकतर प्याज की रोपाई हो चुकी है अथवा नर्सरी में है। यदि प्याज की रोपाई करनी है, तो बेसल ड्रेसिंग में बाकी उर्वरकों के साथ प्रति एकड़ 10 किग्रा गंधक का भी इस्तेमाल करें। इफ्को का बेंटानाइट सल्फर एक शानदार उत्पाद है। नर्सरी में यदि गलन की दिक्कत है, तो मैंकोजेब, कार्बेडाजिम एवं सल्फर का छिड़काव करें। विशेषज्ञों के मुताबिक 18:18:18 (घुलनशील उर्वरक) का छिड़काव भी बेहतर बढ़वार में मददगार है। कम तापमान के चलते लहसुन के कंद छोटे हो सकते हैं। इसके लिए 13:0: 45 का छिड़काव करें। एक लीटर पानी में 10 ग्राम खाद डालें। इसमें 6 मिलीग्राम स्टीकर मिलाने से नतीजे बेहतर होंगे। सब्जियों में ऐसे मौसम में आए फल-फूल गिर जाते हैं। ये बने रहें इसके लिए सूक्ष्म पोषक तत्वों का छिड़काव करें।
New Emerging Disease: लीची के पेड़ के अचानक मुरझाने एवं सूखने (विल्ट) की समस्या को कैसे करें  प्रबंधित ?

New Emerging Disease: लीची के पेड़ के अचानक मुरझाने एवं सूखने (विल्ट) की समस्या को कैसे करें प्रबंधित ?

लीची (लीची चिनेंसिस) एक उष्णकटिबंधीय और उपोष्णकटिबंधीय फल का पेड़ है जो अपने रसीले और सुगंधित फलों के लिए जाना जाता है।लीची में रोग कम लगते है। लीची की सफल खेती के लिए आवश्यक है की इसमें लगनेवाले कीड़ों को प्रबंधित किया जाय। लेकिन विगत कुछ वर्षो से लीची में विल्ट रोग देखा जा रहा है जो फ्युसेरियम ऑक्सीस्पोरम/सोलानी कवक के कारण होने वाली एक संवहनी बीमारी के कारण से होता है। यह रोगज़नक़ मुख्य रूप से जड़ प्रणाली पर हमला करता है, पानी और पोषक तत्वों के परिवहन को बाधित करता है और पेड़ के सूखने, पीले होने और अंततः मृत्यु का कारण बनता है।

लीची में विल्ट रोग के लक्षण

हालांकि इस रोग से किसी भी उम्र के लीची के पेड़ प्रभावित हो सकते है लेकिन यह विल्ट रोग आमतौर पर पांच साल से कम उम्र के लीची के नए पेड़ों में कुछ ज्यादा ही देखा जा रहा है जिसमे पेड़ एक हफ्ते से भी कम समय में मुरझा जाते हैं। पहले लक्षण पत्तियों के पीले पड़ने, पत्तियों के गिरने के बाद धीरे-धीरे मुरझाने और सूखने के रूप में दिखाई देते हैं, जिससे 4-5 दिनों के भीतर पौधे की पूर्ण मृत्यु हो जाती है। यह फ्यूजेरियम ऑक्सीस्पोरम/सोलानी कवक के कारण होता है। इस पर और अधिक अनुसंधान की आवश्यकता है। अभी भी इस रोग पर बहुत कम साहित्य उपलब्ध है। लीची में विल्ट के लक्षण आम में विल्ट रोग के समान ही होते है। लीची का विल्ट रोग (मुरझाना) मृदाजनित कवक फुसैरियम ऑक्सीस्पोरम/सोलानी के कारण होता है, जो दुनिया भर में लीची के बागों के लिए एक भयानक खतरा है। लीची की खेती को बनाए रखने के लिए बीमारी, उसके जीवन चक्र को समझना और व्यापक प्रबंधन रणनीतियों को जानना बहुत महत्वपूर्ण है।

ये भी पढ़ें:
आम, अमरूद ,लीची सहित अन्य फल के बागों में जाला बनाने वाले (लीफ वेबर) कीड़े को समय प्रबंधित नही किया गया तो होगा भारी नुकसान

फ्यूसेरियम ऑक्सीस्पोरम की पहचान और जीवन चक्र

लीची के मुरझाने का कारक एजेंट फुसैरियम ऑक्सीस्पोरम/सोलानी, मृदाजनित कवक के एक समूह से संबंधित है जो अपनी विस्तृत मेजबान सीमा और मिट्टी में दृढ़ता के लिए जाना जाता है। रोगज़नक़ लीची के पेड़ों को जड़ों के माध्यम से संक्रमित करता है, संवहनी प्रणाली पर कब्जा कर लेता है और जल-संवाहक वाहिकाओं में रुकावट पैदा करता है। इसके परिणामस्वरूप पौधे मुरझाने लगते हैं और अंततः पेड़ की मृत्यु हो जाती है। फ्यूसेरियम ऑक्सीस्पोरम/सोलानी के जीवन चक्र में मिट्टी में प्रतिरोधी क्लैमाइडोस्पोर के रूप में जीवित रहना शामिल है। ये बीजाणु वर्षों तक बने रह सकते हैं, किसी संवेदनशील मेजबान के संक्रमित होने की प्रतीक्षा में अतिसंवेदनशील जड़ प्रणाली का सामना करने पर, कवक अंकुरित होता है और जड़ों में प्रवेश करता है, और खुद को संवहनी ऊतकों में स्थापित करता है। फिर कवक अधिक बीजाणु पैदा करता है, चक्र पूरा करता है और बीमारी को कायम रखता है।

लीची के मुरझाने में योगदान देने वाले कारक

लीची के मुरझाने के विकास और प्रसार में कई कारक योगदान करते हैं जैसे.… मिट्टी की स्थिति: फ्यूजेरियम ऑक्सीस्पोरम गर्म और नम मिट्टी की स्थिति में पनपता है। खराब जल निकासी और जलभराव वाली मिट्टी लीची के पेड़ों को संक्रमित करने के लिए कवक के लिए एक आदर्श वातावरण बनाती है। विभिन्न प्रकार की संवेदनशीलता: कुछ लीची की किस्में फ्यूसेरियम ऑक्सीस्पोरम के प्रति प्रतिरोध प्रदर्शित करती हैं, अन्य अत्यधिक संवेदनशील होती हैं। किस्म का चुनाव लीची के मुरझाने के प्रति बगीचे की संवेदनशीलता को महत्वपूर्ण रूप से प्रभावित करता है।

ये भी पढ़ें:
विदेशों में लीची का निर्यात अब खुद करेंगे किसान, सरकार ने दी हरी झंडी
तापमान और आर्द्रता: गर्म तापमान और उच्च आर्द्रता फ्यूसेरियम ऑक्सीस्पोरम के विकास और प्रसार में सहायक होते हैं। ये जलवायु परिस्थितियाँ रोगज़नक़ों को लीची के पेड़ों को संक्रमित करने के लिए अनुकूलतम स्थितियाँ प्रदान करती हैं।

लीची विल्ट रोग को कैसे करें प्रबंधित?

लीची के मुरझाने के प्रबंधन के लिए एक समग्र दृष्टिकोण की आवश्यकता होती है जो निवारक उपायों, कल्चरल (कृषि)उपाय, रासायनिक उपचार, जैविक नियंत्रण, स्वच्छता और प्रतिरोधी किस्मों पर चल रहे शोध को जोड़ती है। आइए इनमें से प्रत्येक घटक पर गहराई से विचार करें:

1. निवारक उपाय

साइट का चयन: लीची के मुरझाने के जोखिम को कम करने के लिए अच्छी जल निकासी वाली जगहों का चयन करना महत्वपूर्ण है। जलजमाव वाले क्षेत्रों से बचने से फ्यूसेरियम ऑक्सीस्पोरम के लिए कम अनुकूल वातावरण बनाने में मदद मिलती है। प्रतिरोधी किस्मों का चयन: रोगज़नक़ के प्रति अंतर्निहित प्रतिरोध वाली लीची किस्मों का रोपण एक सक्रिय रणनीति है। चल रहे शोध का उद्देश्य प्रतिरोधी किस्मों की पहचान करना और विकसित करना है जो फ्यूसेरियम ऑक्सीस्पोरम का सामना कर सकें।

2. कल्चरल (कृषि) उपाय

सिंचाई प्रबंधन: उचित सिंचाई पद्धतियाँ आवश्यक हैं। फ्यूसेरियम ऑक्सीस्पोरम के लिए प्रतिकूल परिस्थितियाँ बनाने के लिए जलभराव और सूखे के तनाव के बीच संतुलन बनाए रखना महत्वपूर्ण है। ड्रिप सिंचाई प्रणाली सीधे जड़ क्षेत्र तक पानी पहुंचाने में मदद कर सकती है, जिससे रोगज़नक़ के साथ मिट्टी का संपर्क कम हो जाता है। कटाई छंटाई और पतलापन: संक्रमित शाखाओं की नियमित कटाई छंटाई और छतरी (कैनोपी)को पतला करने से वायु परिसंचरण को बढ़ावा मिलता है, जिससे पेड़ के चारों ओर नमी कम हो जाती है। यह, बदले में, फंगल बीजाणु के अंकुरण और संक्रमण की संभावना को कम करता है।

ये भी पढ़ें:
लीची की इस किस्म से बंपर पैदावार और आमदनी हो सकती है
पेड़ों के बीच दूरी: लीची के पेड़ों के बीच पर्याप्त दूरी होना बहुत जरूरी है। बढ़ी हुई दूरी बेहतर वायु परिसंचरण की सुविधा प्रदान करती है, आर्द्रता को कम करती है और फ्यूसेरियम ऑक्सीस्पोरम के प्रसार को सीमित करती है।

3. रासायनिक उपचार

कवकनाशी अनुप्रयोग: लीची के मुरझाने के प्रबंधन में कवकनाशी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। थियोफैनेट-मिथाइल और प्रोपिकोनाज़ोल जैसे सक्रिय तत्वों वाले कवकनाशी ने फ्यूसेरियम ऑक्सीस्पोरम/सोलानी के खिलाफ प्रभावकारिता का प्रदर्शन किया है। रोग के विकास के शुरुआती चरणों के दौरान निवारक उपचार लागू करने के साथ,प्रयोग का समय महत्वपूर्ण है। मिट्टी (सक्रिय रूट ज़ोन) को हेक्साकोनाज़ोल या प्रॉपिकोनाजोल @ 2 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी के घोल से या कार्बेंडाजिम या रोको एम नामक फफूंद नाशक की 2 ग्राम मात्रा को प्रति लीटर पानी में घोलकर पेड़ के आसपास की मिट्टी को खूब अच्छी तरह से भिगाए। दस दिन के बाद इसी घोल से पेड़ के आस पास की मिट्टी को खूब अच्छी तरह दुबारा से भिगाए। एकीकृत रोग प्रबंधन (आईडीएम): अन्य रोग प्रबंधन प्रथाओं के साथ कवकनाशी को एकीकृत करने से प्रतिरोध विकसित होने का जोखिम कम हो जाता है। आईडीएम दृष्टिकोण पारिस्थितिक संदर्भ पर विचार करता है और स्थायी, दीर्घकालिक रोग नियंत्रण का लक्ष्य रखता है।

4. जैविक नियंत्रण

लाभकारी सूक्ष्मजीव: ट्राइकोडर्मा की विभिन्न प्रजातियां जैसे कुछ लाभकारी सूक्ष्मजीवों ने फ्यूसेरियम ऑक्सीस्पोरम/सोलानी को दबाने में आशाजनक प्रदर्शन किया है। इन बायोकंट्रोल एजेंटों को मिट्टी में प्रयोग किया जाता है या पर्ण स्प्रे के रूप में उपयोग किया जा सकता है, जो रोग प्रबंधन का प्राकृतिक और पर्यावरण के अनुकूल साधन प्रदान करता है। लीची में पेड़ की उम्र के अनुसार उर्वरक की अनुशंसित खुराक के साथ नीम की खली या अरंडी की खली @ 5-8 किग्रा/वृक्ष लगाएं या बर्मी कंपोस्ट खाद 20से 25 किग्रा प्रति पेड़ देना चाहिए। ट्राइकोडर्मा हर्जियानम,ट्राइकोडर्मा विरिडी , स्यूडोमोनास फ्लोरेसेंस आदि जैसे जैव नियंत्रण एजेंटों का प्रयोग रोग के प्रबंधन में प्रभावी साबित हुआ है। ट्राइकोडर्मा का कमर्शियल फॉर्मुलेशन का 100-200 ग्राम को खूब सड़ी गोबर या कंपोस्ट खाद की 20 किग्रा में मिला कर , सक्रिय रूट ज़ोन में प्रति वयस्क पेड़ मिलाकर मिट्टी की सतह पर लगभग 30-40 सेंटीमीटर चौड़ी एक गोलाकार पट्टी में एक ऐसे स्थान पर फैला दें जो पेड़ की छतरी की बाहरी सीमा से लगभग दो फीट अंदर हो। पानी का छिड़काव कर मिट्टी में पर्याप्त नमी सुनिश्चित करें या हल्की सिंचाई करें। माइक्रोबियल कंसोर्टिया: माइक्रोबियल कंसोर्टिया विकसित करने के लिए अनुसंधान जारी है जो कई लाभकारी सूक्ष्मजीवों के सहक्रियात्मक प्रभावों का उपयोग करता है। ये कंसोर्टिया पर्यावरणीय प्रभाव को कम करते हुए उन्नत रोग दमन की पेशकश करते हैं।

ये भी पढ़ें:
लीची की वैरायटी (Litchi varieties information in Hindi)

5. स्वच्छता

मलबा हटाना: इनोकुलम के संभावित स्रोतों को खत्म करने के लिए संक्रमित पौधे के मलबे को तुरंत हटाना और नष्ट करना महत्वपूर्ण है। बगीचे में फ्यूसेरियम ऑक्सीस्पोरम के बने रहने को रोकने के लिए गिरी हुई पत्तियों, कटी हुई शाखाओं और अन्य पौधों की सामग्री का उचित तरीके से निपटान किया जाना चाहिए। उपकरण कीटाणुशोधन: छंटाई उपकरणों और उपकरणों की नियमित कीटाणुशोधन पेड़ों के बीच कवक के अनजाने प्रसार को रोकने में मदद करती है। बगीचे के रख-रखाव के दौरान रोग संचरण के जोखिम को कम करने के लिए स्वच्छता आवश्यक हैं।

6. प्रतिरोधी किस्मों पर शोध

प्रजनन कार्यक्रम: प्रजनन कार्यक्रमों में निरंतर प्रयासों का उद्देश्य फ्यूजेरियम ऑक्सीस्पोरम के लिए अंतर्निहित प्रतिरोध वाली लीची की किस्मों को विकसित करना है। प्रतिरोधी किस्मों की पहचान करना और उन्हें बढ़ावा देना लीची के मुरझाने का स्थायी दीर्घकालिक समाधान है। जेनेटिक इंजीनियरिंग: जेनेटिक इंजीनियरिंग में प्रगति से प्रतिरोधी किस्मों के विकास में तेजी आ सकती है। फुसैरियम ऑक्सीस्पोरम को प्रतिरोध प्रदान करने वाले जीन पेश करके, शोधकर्ताओं का लक्ष्य लीची की रोगज़नक़ को झेलने की क्षमता को बढ़ाना है।

7. परिशुद्ध कृषि प्रौद्योगिकी

रिमोट सेंसिंग: रिमोट सेंसिंग सहित सटीक कृषि प्रौद्योगिकियां, उत्पादकों को दूर से बगीचे के स्वास्थ्य की निगरानी करने में सक्षम बनाती हैं। सेंसर से लैस ड्रोन बीमारी के शुरुआती लक्षणों का पता लगा सकते हैं, जिससे लक्षित हस्तक्षेप और समय पर रोग प्रबंधन की अनुमति मिलती है।

ये भी पढ़ें:
खुशखबरी: बिहार के मुजफ्फरपुर के अलावा 37 जिलों में भी हो पाएगा अब लीची का उत्पादन
डेटा एनालिटिक्स: सटीक कृषि प्रौद्योगिकियों के माध्यम से एकत्र किए गए डेटा का विश्लेषण रोग की गतिशीलता में मूल्यवान अंतर्दृष्टि प्रदान करता है। यह जानकारी उत्पादकों को प्रबंधन प्रथाओं को अनुकूलित करने और समग्र बगीचे के स्वास्थ्य में सुधार करने में मार्गदर्शन करती है।

सारांश

लीची विल्ट (मुरझान) प्रबंधन के लिए बहुआयामी और एकीकृत दृष्टिकोण की आवश्यकता होती है। निवारक उपायों और कल्चरल उपाय से लेकर रासायनिक उपचार, जैविक नियंत्रण, स्वच्छता और प्रतिरोधी किस्मों पर चल रहे शोध तक, प्रत्येक घटक फ्यूसेरियम ऑक्सीस्पोरम के प्रभाव को कम करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। स्थानीय परिस्थितियों के अनुकूल और अनुसंधान और तकनीकी प्रगति के माध्यम से लगातार परिष्कृत एक समग्र रणनीति, लीची के बागानों को बनाए रखने और लीची मुरझाने की चुनौतियों का सामना करने वाले उत्पादकों की आजीविका सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक है।

जानिए धान की फसल में लगने वाले प्रमुख रोगों और उनकी रोकथाम के बारे में

जानिए धान की फसल में लगने वाले प्रमुख रोगों और उनकी रोकथाम के बारे में

भारत धान का सबसे बड़ा उत्पादक देश है। खरीफ के सीजन में धान की खेती बड़े पैमाने पर की जाती है। इस सीजन में वायुमंडल में आर्दरता होने के कारण फसल पर रोगों का प्रकोप भी बहुत होता है। 

धान की फसल कई रोगों से ग्रषित होती है जिससे पैदावार में बहुत कमी आती है। मेरी खेती के इस लेख में आज हम आपको धान के प्रमुख रोगों और उनकी रोकथाम के बारे में विस्तार से बताएंगे।  

धान के प्रमुख रोग और इनका उपचार   

  1. धान का झोंका (ब्लास्ट रोग) 

  • धान का यह रोग पाइरिकुलेरिया ओराइजी नामक कवक द्वारा फैलता है। 
  • धान का यह ब्लास्ट रोग अत्यंत विनाशकारी होता है।
  • पत्तियों और उनके निचले भागों पर छोटे और नीले धब्बें बनते है, और बाद मे आकार मे बढ़कर ये धब्बें नाव की तरह हो जाते है।
ये भी पढ़ें:
धान की इन किस्मों का उत्पादन करके उत्तर प्रदेश और बिहार के किसान अच्छा उत्पादन ले सकते हैं

उपचार 

  • रोग के नियंत्रण के लिए बीज को बोने से पहले बेविस्टीन 2 ग्राम या कैप्टान 2.5 ग्राम दवा को प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित कर लें।
  • खड़ी फसल मे रोग नियंत्रण के लिए  100 ग्राम Bavistin +500 ग्राम इण्डोफिल M -45 को 200 लीटर पानी मे घोलकर प्रति एकड़ की दर से छिड़काव करना चाहिए।
  • बीम नामक दवा की 300 मिली ग्राम मात्रा को 1000 लीटर पानी मे घोलकर छिड़काव किया जा सकता है।
  1. जीवाणुज पर्ण झुलसा रोग यानी की (Bacterial Leaf Blight)

लक्षण 

  • ये मुख्य रूप से यह पत्तियों का रोग है। यह रोग कुल दो अवस्थाओं मे होता है, पर्ण झुलसा अवस्था एवं क्रेसेक अवस्था। 
  • सर्वप्रथम पत्तियों के ऊपरी सिरे पर हरे-पीले जलधारित धब्बों के रूप मे रोग उभरता है।
  • धीरे-धीरे पूरी पत्ती पुआल के रंग मे बदल जाती है। 
  • ये धारियां शिराओं से घिरी रहती है, और पीली या नारंगी कत्थई रंग की हो जाती है।
ये भी पढ़ें: फसलों पर कीटनाशकों का प्रयोग करते समय बरतें सावधानी, हो सकता है भारी नुकसान

उपचार 

  • रोग के नियंत्रण के लिए एक ग्राम स्ट्रेप्टोसाइक्लिन या 5 ग्राम एग्रीमाइसीन में बीज को बोने से पहले 12 घंटे तक डुबो लें।
  • बीजो को स्थूडोमोनास फ्लोरेसेन्स 10 ग्राम प्रति किलो ग्राम बीज की दर से उपचारित कर लगावें।
  • खड़ी फसल मे रोग दिखने पर ब्लाइटाक्स-50 की 2.5 किलोग्राम एवं स्ट्रेप्टोसाइक्लिन की 50 ग्राम दवा 80-100 लीटर पानी मे मिलाकर प्रति एकड़ की दर से छिड़काव करें।    
  1. पर्ण झुलसा पर्ण झुलसा

भारत के धान विकसित क्षेत्रों मे यह एक प्रमुख रोग बनकर सामने आया है। ये रोग राइजोक्टोनिया सोलेनाई नामक फफूँदी के कारण होता है, जिसे हम थेनेटीफोरस कुकुमेरिस के नाम से भी जानते है। 

पानी की सतह से ठीक ऊपर पौधें के आवरण पर फफूँद अण्डाकार जैसा हरापन लिए हुए स्लेट/उजला धब्बा पैदा करती है।

ये भी पढ़ें: बिहार में धान की दो किस्में हुईं विकसित, पैदावार में होगी बढ़ोत्तरी 

इस रोग के लक्षण मुख्यत पत्तियों एवं पर्णच्छद पर दिखाई पड़ते है। अनुकूल परिस्थितियों मे फफूँद छोटे-छोटे भूरे काले रंग के दाने पत्तियों की सतह पर पैदा करते है, जिन्हे स्कलेरोपियम कहते है। 

ये स्कलेरोसीया  हल्का झटका लगने पर नीचे गिर जाता है। सभी पत्तियाँ आक्रांत हो जाती है जिस कारण से पौधा झुलसा हुआ दिखाई देता है, और आवरण से बालियाँ बाहर नही निकल पाती है। बालियों के दाने भी पिचक जाते है। 

वातावरण मे आर्द्रता अधिक तथा उचित तापक्रम रहने पर, कवक जाल तथा मसूर के दानों के तरह स्कलेरोशियम दिखाई पड़ते है। रोग के लक्षण कल्लें बनने की अंतिम अवस्था मे प्रकट होते है। 

लीफ शीथ पर जल सतह के ऊपर से धब्बे बनने शुरू होते है। पौधों मे इस रोग की वजह से उपज मे 50% तक का नुकसान हो सकता है।

 उपचार 

धान के बीज को स्थूडोमोनारन फ्लोरेसेन्स की 1 ग्राम अथवा ट्राइकोडर्मा 4 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करके बुआई करें। 

जेकेस्टीन या बेविस्टीन 2 किलोग्राम या इण्डोफिल एम-45 की 2.5 किलोग्राम मात्रा को 200 लीटर पानी मे घोलकर प्रति एकड़ की दर से छिड़काव करें। खड़ी फसल मे रोग के लक्षण दिखाई देते ही भेलीडा- माइसिन कार्बेन्डाजिम 1 ग्राम या प्रोपीकोनालोल 1 ML का 1.5-2 मिली प्रति लीटर पानी मे घोल बनाकर 10-15 दिन के अन्तराल पर 2-3 छिड़काव करें।

ये भी पढ़ें: धान की खड़ी फसलों में न करें दवा का छिड़काव, ऊपरी पत्तियां पीली हो तो करें जिंक सल्फेट का स्प्रे

  1. धान का भूरी चित्ती रोग (Brown Spot)

धान का यह रोग देश के लगभग सभी हिस्सों मे देखा जा सकता है। यह एक बीजजनित रोग है। यह रोग हेल्मिन्थो स्पोरियम औराइजी नामक कवक द्वारा होता है।    

ये रोग फसल को नर्सरी से लेकर दाने बनने तक प्रभावित करता है। इस रोग के कारण पत्तियों पर गोलाकार भूरे रंग के धब्बें बन जाते है।  इस रोग के कारण पत्तियों पर तिल के आकार के भूरे रंग के काले धब्बें बन जाते है। 

ये धब्बें आकार एवं माप मे बहुत छोटी बिंदी से लेकर गोल आकार के होते है। धब्बों के चारो ओर हल्की पीली आभा बनती है। ये रोग पौधे के सारे ऊपरी भागों को प्रभावित करता है।

ये भी पढ़ें: कैसे डालें धान की नर्सरी

उपचार 

रोग दिखाई देने पर मैंकोजेब के 0.25 प्रतिशत घोल के 2-3 छिड़काव 10-12 दिनों के अन्तराल पर करना चाहिए। खड़ी फसल में इण्डोफिल एम-45 की 2.5 किलोग्राम मात्रा को 200 लीटर पानी मे घोल कर प्रति एकेड की दर से छिड़काव 15 दिनों के अन्तर पर करें।  

इस लेख में आपने धान के प्रमुख रोगों और इनकी रोकथाम के बारे में जाना। मेरीखेती आपको खेतीबाड़ी और ट्रैक्टर मशीनरी से जुड़ी सम्पूर्ण जानकारी प्रोवाइड करवाती है। अगर आप खेतीबाड़ी से जुड़ी वीडियोस देखना चाहते हो तो हमारे यूट्यूब चैनल मेरी खेती पर जा के देख सकते है।  

सर्दियों के दिनों में झुलसा रोग से बचाऐं आलू अन्यथा बर्बाद हो जाएगी फसल

सर्दियों के दिनों में झुलसा रोग से बचाऐं आलू अन्यथा बर्बाद हो जाएगी फसल

झुलसा रोग पौधों की हरी पत्तियों को पूर्णतया बर्बाद कर देता है। इस रोग के कारण पत्तियों के निचले भाग पर सफेद रंग के गोले का निशान पड़ जाता है, कुछ समय उपरांत पत्तियों में भूरे व काले निशान हो जाते हैं। भारत के विभिन्न क्षेत्रों में मौसमिक प्रभाव होने लगें है। विशेषकर आलू का पछेती उत्पादन करने वाले उत्पादक कृषक आलू की फसल को पाले से प्रभावित होने से बचाने में असमर्थ हो जाते हैं। इस परिस्थिति में तत्काल समुचित उपाय करें जिससे कि आलू का बेहतर उत्पादन हाँसिल कर सकें। यदि समय से सही उपाय न किया गया तो पत्तियां बहुत जल्दी नष्ट हो जाएँगी। आलू की फसल में नाशीजीवों (खरपतवारों, कीटों व रोगों ) से करीब 40 से 45 प्रतिशत तक नुकसान होता है। भारत के वरिष्ठ फसल वैज्ञानिक डॉक्टर एसके सिंह ने बताया है, कि यह पछेती झुलसा रोग फाइटोपथोरा इन्फेस्टेंस नाम के फफूंद की वजह से उत्पन्न होता है। साथ ही, आलू का पछेती अंगमारी रोग फसल के लिए अत्यंत हानिकारक साबित होता है। आयरलैंड देश में प्रचंड अकाल जो कि वर्ष 1845 में हुआ था। उसकी मुख्य वजह यह पछेती अंगमारी रोग ही था। बतादें, कि वातावरण में नमी और प्रकाश बेहद कम हो और बहुत दिनों तक बारिश अथवा बारिश की भाँति वातावरण होता है, ऐसी स्थिति में इस रोग की मार पौधे की पत्तियों से आरंभ होती है। बतादें, कि इस रोग की वजह 4 से 5 दिनों के मध्य पौधों की समस्त हरी पत्तियाँ पूर्णतया बर्बाद हो जाती हैं।


ये भी पढ़ें:
झुलसा से बचाएं आलू की फसल
डाक्टर सिंह का कहना है, कि पत्तियों के संक्रमित होने की वजह से आलू के उत्पादन में कमी आने के साथ आकार भी छोटा हो जाता है। आलू के बेहतर उत्पादन हेतु 20-21 डिग्री सेंटीग्रेट तापमान अच्छा होता है।आर्द्रता आलू की वृद्धि में सहायता करती है। तापमान और नमी पछेती झुलसा के विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। बीजाणु बनाने की प्रक्रिया (स्पोरुलेशन) 3-26 डिग्री सेल्सियस (37-79 डिग्री फारेनहाइट) से हो सकती है। परंतु अधिकतम सीमा 18-22 डिग्री सेल्सियस (64-72 डिग्री फारेनहाइट) है। आलू के सफल उत्पादन हेतु जरुरी है, कि इस रोग के संबंध में जाने एवं इसके समुचित प्रबंधन हेतु जरुरी फफुंदनाशक पूर्व से खरीद कर रख लें और समयानुसार इस्तेमाल करें। ध्यान रहे यह रोग लगने के उपरांत किसानों को इतना वक्त नहीं मिलेगा की उत्पादक इससे बच सकें। डॉक्टर एसके सिंह के अनुसार, जब तक आलू की फसल में इस रोग का संकेत नहीं दिखाई पड़ता है, जब तक मैंकोजेब युक्त फफूंदनाशक 0.2 फीसद की दर से मतलब दो ग्राम दवा प्रति लीटर जल में मिश्रण कर छिड़काव कर सकते हैं। परंतु एक बार रोगिक लक्षण के बारे में पता चलने के उपरांत मैंकोजेब फफूंदनाशक के छिड़काव का भी कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। इसलिए किसान इस बात का बेहद ध्यान रखें कि जब भी खेतों में रोगिक लक्षण दिखाई दें, तुरंत साइमोइक्सेनील मैनकोजेब दवा को 3 ग्राम मात्रा प्रति लीटर जल में मिश्रण कर छिड़काव करें। इसी तरह फेनोमेडोन मैनकोजेब 3 ग्राम प्रति लीटर जल में मिलाकर छिड़काव करें। मेटालैक्सिल और मैनकोजेब मिश्रित दवा की 2.5 ग्राम मात्रा प्रति लीटर जल में मिलाकर फसल पर छिड़काव कर सकते हैं। अनुमानित, एक हेक्टेयर में 800 से 1000 लीटर दवा के मिश्रण की जरुरत होगी। लेकिन छिड़काव करते वक्त किसान पैकेट पर दिए गए सारे निर्देशों का बेहद सजगता से निर्वहन करें अन्यथा दुष्परिणाम भी झेलना पड़ सकता है।